मोदीनगर। किसी भी वस्तु की अति बुरी होती है इस कहावत को कहने वाले महापुरूष को शायद इस बात अनुमान नही रहा होगा, कि उसके ये साधारण से शब्द हर दौर में मानव जाति की दशा और दिशा को निर्धारित करने का पैमाना बन जाएंगे। फिर चाहे विज्ञान के इस्तेमाल को लेकर चला पिछली सदी का बौद्धिक विमर्श हो या फिर वर्तमान नई सदी की शुरूआत से जारी इंटरनेट और उससे जुडे़ माध्यमो के इस्तेमाल को लेकर बहस। सोशल मीडिया के आ जाने के बाद से तो पूरी तरह से एक आभासी समाज का निर्माण हो गया है। जिसने आज हर मोड़ पर वास्तविक समाज के लिए चुनौती पैदा कर दी है। फिर चाहे वो सामाजिक संस्थाएं हो या उसके रीति-रिवाज और दूसरे संस्कार। अपने स्मार्ट फोनों और इंटरनेट के माध्यम से वैश्विक तौर पर एक दूसरे से जुड़ा युवा वर्ग आज अपने ही समाज से कटकर रह गया। इसका यदि सबसे ठोस प्रमाण देखना हो तो वो हमारे त्यौहारों के बदलते स्वरूप को लेकर देखा जा सकता है। ईद, दीवाली, होली हों या फिर बैसाखी और लोहडी़ सभी तीज त्यौहार सोशल मीड़िया की चमक धमक में गुम होते जा रहे है। सोशल मीड़िया की आभासी निकटता के चलते युवा वर्ग त्यौहारों के असली सुख से विमुख होता दिखाई दे रहा है।
समाज को साथ लाना होता है त्यौहारों का उद्ेश्य
समाज शास्त्रीयों की मानें तो त्यौहारों का असली उदेश्य उसे व्यक्ति के तौर पर परिवार और समाज को साथ जोड़ना होता है। त्यौहार ही हैं जो कि आम आदमी की कठिन और नीरस जीवन को खुशियों के पल प्रदान करते है। होली के रंग दीपावली की रोशनी और ईद की मिठास और भाईचारे का उदेश्य यही है कि इंसान आप से बाहर निकल कर परिवार और समाज के साथ जुडें। यदि ये त्यौहार भी केवल सोशल मीड़िया पर मनाए जाएगें तो समाज का तानाबाना ही बिखर जाएगा, और व्यक्ति अपने में ही कैद होकर रह जाएगा। क्योकि जो सुख अपने के साथ अपने भाई के गले मिलकर बधाई देने में है वो एक पोस्ट को भेजकर नही हासिल किया जा सकता है।
अब कोई नही मागनंे जाता है लोहड़ी
यदि साल के पहले त्यौहार लोहड़ी की ही बात करे तो लोगांे के एकाकी पसंद सोशल मीडिया के इस्तेमालकर्ता ने इसके रूप को बदरंग कर दिया है। सर्दी की ठिठुरती रात में अपनेपन की गर्मी बिखेरता अलाव उसके चारों तरफ मुंह भाप के साथ गीतांे की ताने बिखेरती घरों की महिलाएं गर्म कपडों की तहों में दुबके छोटे बच्चों और ठोल की थाप के साथ भंगड़ा और गिद्दा डालते युवक और युवतियां। ऐसे दृष्य तो अब फिल्मांे और धारावाहिकों तक ही सिमटकर रह गए हैं। आज के दौर के बच्चों को तो पता ही नही है कि कैसे घर-घर जाकर छोटे बच्चे लोहड़ी मांगते थे और कैसे मोहल्ले के घरों से रेवडी और मुंगफली के साथ बडों का प्यार और आशीर्वाद भी मिल जाता था।
त्यौहारों के रंग रूप को लील रहा है सोशल मीडिया